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मिर्जापुर।
गुरुवार को सायं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लालगंज खंड की ओर से हिन्दू साम्राज्य दिनोत्सव कार्यक्रम का आयोजन भारतीय पब्लिक स्कूल बामी लहंगपुर के परिसर मे किया गया। संघ के स्वयंसेवको ने छत्रपति शिवाजी महाराज को नमन करते हुए उनके आदर्शो एवं व्यक्तित्व कृतित्व पर चर्चा किया। इस दौरान सह विभाग बौद्धिक प्रमुख संतोष जी का पाथेय प्राप्त हुआ।
कार्यक्रम का शुभारंभ शिवाजी के चित्र के समक्ष पुष्पार्चन करके किया। तत्पश्चात अमृत वचन, एकल गीत एवं गणगीत हुआ।
उद्बोधन मे सह विभाग बौद्धिक प्रमुख संतोष जी ने कहाकि हिंदू ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का दिवस है। जिसे हिन्दू साम्राज्य दिवस के रूप मे मनाया जाता है। संघ ने इस उत्सव को अपना उत्सव क्यों बनाया इसका आज के वातावरण में जिन्हें ज्ञान नहीं है, जानकारी नहीं है, उन के मन में कई प्रश्न आ सकते हैं। हमारे देश में राजाओं की कमी नहीं है, देश के लिये जिन्होंने लडकर विजय प्राप्त की, ऐसे राजाओं की भी कमी नहीं है। फिर भी, क्योंकि संघ नागपुर में स्थापन हुआ और संघ के प्रारंभ के सब कार्यकर्ता महाराष्ट्र के थे, इसी लिये संघ ने छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का दिन हिंदू साम्राज्य दिनोत्सव बनाया, ऐसा नहीं है। छत्रपति शिवाजी महाराज के समय की परिस्थिति अगर हम देखेंगे, तो ध्यान में ये बात आती है कि अपनी आज की परिस्थिति और उस समय की परिस्थिति इसमें बहुत अंशों में समानता है। उस समय जैसे चारों ओर संकट थे। समाज अत्याचारों से ग्रस्त था, पीड़ित था, वैसे ही आज भी तरह तरह के संकट हैं, और केवल विदेश के और उनकी सामरिक शक्तियों के संकट नहीं है, सब प्रकार के संकट है। उस समय भी ये संकट तो थे ही, लेकिन उन संकटों के आगे समाज अपना आत्मविश्वास खो बैठा था। यह सब से बडा संकट था। मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से इन संकटों का सूत्रपात हुआ। हम लड़ते रहे, लेकिन लडाई में बार बार मार खाते, कटते, पिटते भी रहे। विजय नगर के साम्राज्य का जब लोप हो गया, तो समाज में एक निराशा सी व्याप्त हो गई। जैसी आज देखने को मिलती है। समाज के बारे में सोचने वाले प्रामाणिक व्यक्तियों के पास हम जायेंगे, उनके साथ बैठेंगे, सुनेंगे तो वे सब लोग लगभग निराश है। कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती और निराशा का पहिला परिणाम होता है आत्मविश्वास गवाँ बैठना। वह आत्मविश्वास चला गया।
उन्होने कहाकि अभी अभी कोलकाता की एक संपूर्ण हिंदू धनी बस्ती में विनाकारण एक मस्जिद बनाने का काम कट्टरपंथी उपद्रवियों ने शुरू किया। शुरू ही किया था तो पहली प्रतिक्रिया हिंदू समाज की क्या हुई? ‘अरे राम, यहाँ पर मस्जिद आ गई! चलो, इस बस्ती को अब छोड़ो!’ वहाँ संघ के स्वयंसेवक है, उन्होंने सब को समझाया, फिर वहाँ प्रतिकार खडा हुआ, यह बात अलग है। लेकिन हिंदू समाज पहला विचार यह करता है कि आ गये! भागो! शिवाजी के पूर्व के समय में भी ऐसी ही परिस्थिति थी। अपनी सारी विजिगीषा छोड कर हिंदू समाज हताश हो कर बैठा था। अब हमको विदेशियोंकी चाकरी ही करनी है यह मानकर चला था। इस मानसिकता का उत्तम दिग्दर्शन शायद राम गणेश गडकरी जी के ‘शिव संभव’ नाटक में है। शिवाजी महाराज के जन्म की कहानी है- जिजामाता गर्भवती है, और गर्भवती स्त्री को विशिष्ट इच्छाएँ होती है खाने, पीने की। कहते है कि आनेवाला बालक जिस स्वभाव का होगा, उस प्रकार की इच्छा होती है। मराठी में ‘डोहाळे’ कहते है। हर गर्भवती स्त्री को ऐसी इच्छा होती है। फिर उस की सखी सहेलियाँ उस की इच्छाएँ पूछ कर उसको तृप्त करने का प्रयास करती है। नाटक में प्रसंग है जिजामाता के सहेलियों नें पूछा, ‘क्या इच्छा है?’ तो जिजामाता बताती है कि, ‘मुझे ऐसा लगता है की शेर की सवारी करूँ, और मेरे दो ही हाथ न हों, अठारह हाथ हों और एकेक हाथ में एकेक शस्त्र लेकर पृथ्वीतल पर जहाँ जहाँ राक्षस हैं वहाँ जाकर उन का निःपात करूँ, या सिंहासन पर बैठकर और छत्र चामरादि धारण कर अपने नाम का जयघोष सारी दुनिया में करावाऊँ। इस प्रकार की इच्छाएँ मुझे हो रही है। सामान्य स्थिति में यह सुनते है, तो कितना आनंद होगा कि आनेवाला बालक इस प्रकार का विजिगीषु वृत्ति का है। लेकिन जिजामाता की सहेलियाँ कहती है कि, ‘ये क्या है? ये क्या सोच रही हो तुम? अरे जानती नहीं एक राजा ने ऐसा किया था, उस का क्या हाल हो गया? हम हिंदू है, सिंहासन पर बैठेंगे?” ‘भिकेचे डोहोळे’ ऐसा शब्द मराठी में हैं। भीख माँगने के लक्षण! याने हिंदू ने हाथ में शस्त्र लेकर पराक्रम करने की इच्छा करना या सिंहासन पर बैठने की इच्छा करना यह बरबादी का लक्षण है। इस प्रकार की मानसिकता हिंदुसमाज की बनी थी। आत्मविश्वासशून्य हो जाते है तो फिर सब प्रकार के दोष आ जाते है। स्वार्थ आ जाता है। आपस में कलह आ जाता है और इस का लाभ लेकर विदेशी ताकते बढती चली जाती है। बढती चली जाती है और फिर सामान्य लोगों का जीवन दुर्भर हो जाता है।

शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक होना यह केवल शिवाजी महाराज के विजय की बात नहीं है। काबूल-जाबूल पर आक्रमण हुआ, तब से शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के समय तक इस देश के धर्म, संस्कृति व समाज का संरक्षण कर हिंदुराष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के जो प्रयास चले थे, वे बार बार विफल हो रहे थे। प्रयोग चले, राजा लड रहे थे, विभिन्न प्रकार की रणनीति का प्रयोग कर रहे थे, संत लोग समाज में एकता लाने के, उन को एकत्र रखने के, उनकी श्रद्धाओं को बनाये रखने के लिये अनेक प्रकार के प्रयोग चला रहे थे। कुछ तात्कालिक सफल हुए। कुछ पूर्ण विफल हुए, लेकन जो सफलता समाज को चाहिये थी वह कहीं दिख नहीं रही थी। इन सारे प्रयोगों के प्रयासों की अंतिम सफल परिणति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक है। यह केवल शिवाजी महाराज की विजय नहीं है। लडने वाले हिंदू राष्ट्र की अपने शत्रुओं पर विजय है। नए प्रकार का जो परिचक्र आया है, जो मात्र सत्ता और संपत्ति लूटता नहीं है, जो मनुष्य को ही बदल देने की चेष्टा करता है, और जो बदलने के लिये तैयार नहीं है उनका उच्छेद करता है, ऐसे समाज विध्वसंक, धर्म विध्वंसक परकीय आक्रामकों से अपना सहिष्णुता का, शांति का, अहिंसा का, सब को अपना मानने वाला तत्वज्ञान अबाधित रखते हुए, उसकी सुरक्षा के लिये लडकर उनपर विजय कैसे प्राप्त करना, इस समाज की पाँच सौं साल की ऐसी समस्या का निदान शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक में हो गया। इसीलिये उस का महत्व है। शिवाजी महाराज का उद्यम देखने के बाद सबको भरोसा हो गया कि अगर इस का हल ढूँढकर, फिर से हिंदू समाज, हिंदू धर्म, संस्कृति, राष्ट्र को प्रगति पथ पर अग्रसर कर सकता है, ऐसा कोई एक व्यक्ति है तो वह शिवाजी महाराज है और इसलिये औरंगजेब की चाकरी पर लातमार कर कवि भूषण दक्षिण में आये और अपनी शिव बावनी लेकर उन्होंने शिवाजी महाराज के सामने उसका गायन किया। भूषण को धनमान की जरूरत नहीं थी। वे औरंगजेब के दरबार में कवि थे ही, लेकिन हिंदू थे। देशभक्त थे। तो देश में सब प्रकार का उच्छेद करनेवाले इन अधर्मियों को, विधर्मियों को उन की स्तुति के गान सुनाना उनकी प्रवृत्ति में नहीं था, इस लिये इधर उधर की प्रणय कवितायें सुनाकर समय काट लेते थे।
औरंगजेब ने एक बार आज्ञा की मेरी स्तुति का काव्य करो। बहुत पीछे पडा, तब उन्होंने भरे दरबार में उसको नकार दिया। कहा कवि बेचा नहीं जाता। जो केवल उज्जवल है, उसी की स्तुति कवि करता है। तुम स्तुति करने लायक नहीं हो और तुम्हारी चाकरी मुझे नहीं चाहिये। उसे छोडकर चले आये। केवल महाराष्ट्र के लोगों को ही लगता था कि शिवाजी महाराज राजा बने ऐसी बात नहीं। ऐसा उन को तो लगता ही था। यहाँ के संतों को लगता था कि धर्म स्थापना के लिये शिवाजी महाराज का राजा होना आवश्यक है। जिजामाता को लगता था कि अपने पुत्र का कर्तृत्व इतना है की वह हिंदूसमाज का नेतृत्व कर सकता है। लेकिन काशी विश्वेश्वर के मंदिर का काशी में विध्वंस देखने वाले उस के परंपरागत पुजारी परिवारों के वंशज गागा भट्ट, उन को भी लगा कि अगर इस प्रकार मंदिरों का विध्वंस अपने देश में रोकना है तो कौन रोक सकता है? उन्होंने पूछताछ की तो शिवाजी महाराज का नाम सुना। महाराष्ट्र में आए। नाशिक से लेकर अपने शिवाजी महाराज के मिलने तक के प्रवास में शिवाजी महाराज की सारी जानकारी ली, सारा प्रत्यक्ष अनुभव किया और फिर शिवाजी महाराज को आकर कहा, ‘आपको सिंहासनाधीश होना है’। इसीलिये तो इस राज्याभिषेक के परिणामस्वरूप केवल महाराष्ट्र में एक सिंहासन बना, शिवाजी महाराज राजा बने, यहाँ तक परिणाम सीमित नहीं रहे। आगरा में औरंगजेब को मिलने के लिये जब शिवाजी महाराज गये तब सारा हिंदू जगत, सारी दुनिया भी देख रही थी। लेकिन हिंदू जगत विशेष रूप से देख रहा था। वह समझ रहा था कि ये अंतिम परीक्षा है। शिवाजी महाराज का प्रयोग सफल होता है कि नहीं? सब लोग लड़ने वाले लोग थे। उनको हिंदवी स्वराज्य चाहिये था। शब्द अलग अलग होंगे। लेकिन शिवाजी महाराज जो सफल उद्यम कर रहे थे, वह वास्तव में सफल होता है या नहीं उसकी परीक्षा अब थी और इस लिये शिवाजी महाराज जब औरंगजेब के दरबार से सहीसलामत छूट कर, निकल आये और फिर से उद्यम प्राप्त करके उन्होंने अपना सिंहासन बनाया, उसके परिणाम क्या है? राजस्थान के सब राजपूत राजाओं ने अपने आपस के कलह छोडकर दुर्गादास राठोड के नेतृत्व में अपना दल बनाया और शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के पश्चात कुछ ही वर्षों में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की कि सारे विदेशी आक्रामकों को राजस्थान छोडना पडा। उसे के बाद किसी मुगल, तुर्क का पैर राजस्थान में राजा के नाते नहीं पडा। नोकर के नाते भलेही पडा हो। छत्रसाल ने तो प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज से प्रेरणा पायी। उसके पिताजी चंपतराय के काल तक सषर्घ चल रहा था। शिवजी महाराज की कार्यशैली को प्रत्यक्ष देखकर छत्रसाल यहाँ से गये और उन्होंने अंततः विजय पा कर स्वधर्म का एक साम्राज्य वहाँ पर उत्पन्न किया। असम के राजा चक्रध्वजसिंह कहते थे ‘जैसा वहां पर शिवाजी कर रहा है वैसी नीति चलाकर इस असम पर किसी आक्रामक का पैर पडनें नहीं दूंगा।’ ब्रह्मपुत्र से सब को वापिस जाना पडा। असम कभी भी मुगलों का गुलाम नहीं बना। इस्लाम का गुलाम नहीं बना। लेकिन चक्रध्वजसिंह ने कहा और लिखा शिवाजी जैसी नीति अपनाकर हम लोगों को मुगलों को खदेड देना चाहिये। और ऐसा हो जाने के बाद कोच-बिहार के राजा रूद्रसिंह लड रहे थे वह लडाई भी सफल हो गई है। ‘हम को भी ऐसा ही पाखंडियों को बंगाल के समुद्र में डुबोना चाहिये’ इस लिये शिवाजी महाराज के उदाहरण से प्रेरणा मिली। ये सारा इतिहास में है। शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक, संपूर्ण हिंदूराष्ट्र के लिये एक संदेश था कि यह विजय का रास्ता है। इस पर चलो। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का प्रयोजन ही यह था। शिवाजी महाराज के सारे उद्यम का प्रयोजन यही था। उनका उद्यम अपने लिये नहीं था। शिवजी महाराज ने अपने व्यक्तिगत कीर्ति, सन्मान के लिये सत्ता संपादन नहीं किया। उन की तो यह वृत्ति ही नहीं थी। दक्षिण में कुतुबशहा से मिलने गये तो वापस आते समय वे श्री शैल मल्लिकार्जुन के दर्शन के लिये गये। वहाँ की कथा है कि वहाँ जा कर इतने भाव विभोर हुए कि शिवाजी की पिंडी के सामने अपने सर को कलम करने के लिये वे तैय्यार हो गये। शिर कमल अर्पण करने के लिये। वहाँ उन के अंगरक्षक और अमात्य साथ में थे इस लिये उस दिन शिवाजी महाराज को उन्होंने बचा लिया। स्वार्थ की बात तो दूर रही शिवाजी महाराज को अपने प्राणों से भी मोह नहीं था। स्वार्थ की बात रहती तो छत्रसाल जो आये थे देशकार्य में सेवा का अवसर माँगने, उनको अपना मांडलिक बना देते। शिवाजी महाराज ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने उपदेश किया, “तुम नौकर बनने के लिये हो क्या? क्षत्रिय कुल में जन्में तम सेवा करोगे दूसरे राजाओं की? अपना राज्य बनाओ।” यह नहीं कहा कि वहाँ राज्य बनाकर मेरे राज्य से जोड दो, या मेरा मांडलिक बनो तब मै मदद करूँगा। ऐसा नहीं कहा उन्होंने। क्योंकि यह उन्हें करना ही नहीं था। उनका उद्देश्य ऐसी अपनी एक छोटी जागीर, एक राज्य, सब राजाओं में अधिक प्रभावी एक राजा, ऐसा बनना नहीं था।
इस अवसर पर प्रमुख रूप से लालगंज खण्ड कार्यवाह सुरेंद्र कुमार जी दिनदयाल जी, इंद्र मोहन जी, भारतीय पब्लिक स्कूल के प्रधानाचार्य बीपी दुबे जी, हरिश्चंद्र जी, राहुल जी, रजनीकांत जी, सुरेंद्र प्रताप सिंह जी, सुरेश यादव जी, बैजू जी, दिनेश जी, मुख्य शिक्षक वीर जी, शिवम जी, आर्य जी, अर्पण जी, मुख्य शिक्षक पंकज जी, शाखा कार्यवाह रामरूप जी, मंडल कार्यवाह पुष्पेंद्र जी, मोहित जी आदि बहुत से सारे स्वयंसेवक व क्षेत्र के सम्मानित प्रतिष्ठित लोग उपस्थित रहे।

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