हरिकिशन अग्रहरि
डिजिटल डेस्क, अहरौरा।
अरण्य, विपिन, वन आदि कई नामों से जंगल को जाना जाता है। प्राचीन काल में अरण्य जहाँ शिकार खेलते थे। वन वह भू भाग जहाँ पेड़ पौधे, औषधि युक्त जड़ी बूटी पाये जाते हैं। अब वन विभाग और उसके भू भाग पाये जाते हैं लेकिन वहां जो दृश्य होता है न तो अरण्य लगता है और न वन। इसका मुख्य कारण उस भू भाग में जंगली जानवर गायब हो गये हैं और पेड़ पौधों का अकाल पड़ा है। एक रिटायर्ड वन अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि पहले वन से राजस्व प्राप्त होता था क्योंकि बड़े बड़े पेड़ों की नीलामी होती थी। इन पेड़ों पर गोल सरकारी निशान व नम्बर लगाया जाता था। उस पेड़ की कटाई जड़ से नहीं होती थी।उस पेड़ की मोटाई के आधार पर उसकी गोपनीय कीमत सरकारी रजिस्टर्ड में आंकी जाती थी। वन क्षेत्र के कुछ निश्चित क्षेत्रफल में इसका टेण्डर होता था और सरकारी मूल्य से अधिकतम टेण्डर वाले को निश्चित पेड़ों की कटाई हेतु आज्ञा दी जाती थी। वन अधिकारियों को मालूम रहता है कि इन पेड़ों को पुनः बढ़ने में कितना समय लगेगा। वन ठीकेदार टेण्डर पेड़ों के साथ ही साथ अनरजिस्टर्ड पेड़ों को वनाधिकारी की मिली भगत से काट लेते थे। कुछ मिलाकर वन माफियाओं व वनाधिकारियों की मिलीभगत से आज वन की यह दुर्दशा हुई है। वन के किनारे की जमीनों का ध्यान नहीं रखा गया और पेड़ पौधे काटकर कृषि भूमि बनायी गयी। उस पर काबिज होकर लोग निवास करने लगे और ग्राम सभा की जमीन बताने लगे। पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा करने पर लगान भी उक्त जमीन पर हो गई।इसी विषयक बहुत सारे मुकदमें वन विभाग लड़ रही है। अब वन विभाग हर वर्ष वन आच्छादित करने हेतु लाखों खर्च करती है और रिपोर्ट आती है कि गढ्ढे खुदवाती है लेकिन बरसात की मिट्टी भराव से गढ्ढे पट गये। पेड़ लग नहीं पाये और वन क्षेत्र पेड़ पौधों रहित हो गया। आज भी अहरौरा के इर्द-गिर्द वन क्षेत्रों का यही हाल है। वन विभाग है लेकिन वन क्षेत्र अवैध कब्जे का शिकार है। राजाओं के समय में अरण्य क्षेत्र में जंगली जानवरों की शिकार हुआ करती थी और आजादी के बीस साल बाद से वन विभाग की जमीनों का कृषि क्षेत्र के नाम पर शिकार किया जा रहा है।मोटे मोटे शीशम, सागौन, कत्था, जंगली जामुन, शहतूत, कौरैया आदि की सूखी लकड़ी, जलावनी लकड़ी के नाम से कट गये। अब अहरौरा के आसपास के जंगल में सूखी झाड़ियां दिखती है और बरसाती मौसम में तरह-तरह के रंगबिरंगे जंगली फूलों के पौधे और हरी भरी लतरायें झाड़ियां दिखती है।
जब कोई वनाधिकारी सख्त और कर्मठ आता है तो आदिवासी, मुसहरों आदि जन जातियों का मुहर्रम निकाला जाता है जबकि वन माफिया पहले मस्त थे और आज भी मलाई खा रहे हैं। अब तो लोग चर्चा करते हैं कि कहां से शुरू है जंगल, कहाँ है जंगल? यही हकीकत है अहरौरा क्षेत्र के अन्तर्गत पड़ने वाले वन का और वन विभाग का।