जन सरोकार

मिर्जापुर: गरीब हूँ साहब, मेरी भी कोई सुनेगा

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जब मई जून के महीने में समाज का एक वर्ग घर से बाहर नहीं निकलता, इस वर्ग बच्चे एसी कूलर की ठंडी ठंडी हवाओं के बीच घरों में कैद रहते हैं, महिलाएं इंटरनेट की दुनिया में खो जाती हैं। वहीं दूसरी ओर इसी समाज का दूसरा वर्ग पुरूष दो जून की रोटी के जुगाड़ में तपते पत्थरों का सीना चीरते हैं, नहरों में मिट्टी खोदते हैं, सूखी लकड़ियों की तलाश में जंगलों की खाक छानते हैं, महिलाएँ तपते पत्थरों में बनी घास फूस की मड़ई में, पत्थरों से निर्मित ढोकों की दीवारों की ओंट में अपने दूधमुहे को तपन से बचाने के लिए संघर्ष करती है, थोड़े बड़े बच्चे नंगे बदन धूप को सहने की शक्ति विकसित करते हैं। ऐसा समाज बजवा बजाहुर, बड़की खोरिया के आसपास मिलता है जो अहरौरा के पश्चिम में तेरह से बीस किलोमीटर की दूरी के बीच में है। ग्राम बरही से एक पहाड़ पार करना पड़ता है। पहाड़ पर बड़े बड़े पत्थरों का हर पल सामना करना पड़ता है। करीब दस मिनट पद यात्रा के दौरान संघर्ष करने के बाद उबड़ खाबड़ मैदानी इलाका मिलता है और जहाँ ठोस चट्टान मिलते हैं, वहीँ इंसानी जिंदगी होने की संभावना होती है। इसी रास्ते कच्चे रास्ते से बजवा बजाहुर, बेदऊर पहुंचा जा सकता है जहाँ धूप से जले संघर्षशील इंसान मिलते हैं। इस रास्ते का निर्माण न होने के कारण बीमार बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं को चारपाई पर कंधे पर लादकर पैदल चलते इंसान दिखाई देते हैं।बरसात में चिकनी मिट्टी रास्ते को भर लेते हैं जहाँ से साईकिल दो लोगों के सहारे चलती है और पैर भी किचड़ से सन जाते हैं। आकस्मिक चिकित्सा की आवश्यकता में इन रास्तों के बीच न जाने कितने महिलाओं, पुरूषों और बच्चों के प्राण पखेरू हो गये हैं। इधर फसल तैयार करते किसानों को घड़रोजों का प्रतिदिन सामना करना पड़ता है और इन जानवरों से बचे फसल को मंडी पहुंचाने में आदि काल की सभ्यता में संघर्षरत मानव की तरह कार्य करते देखा जा सकता है।इधर पहुंचने के लिए दो पहाड़ी नदियों का सामना करना पड़ता है लेकिन इन मानवों की संघर्ष को समझते हुए वो लगातार दम तोड़ दे रही है जिससे इनको कुछ राहत मिल सके। हाय रे! सरकार के लगातार विकास पर बढ़ते कदम जो इनकी आधारभूत मांग सड़क, बिजली और पानी की समस्या पर आजादी सत्तर साल बाद भी मौन है। एक समय नक्सल वाद में इधर जड़ फैलानी शुरू की तो अहरौरा बरही सड़क मार्ग का निर्माण हो गया लेकिन आगे का सात किलोमीटर का मार्ग नहीं निर्माण हो पाया जिससे इन कच्चे रोड के किनारे रहने वाले हम सभी को उधर देखकर विस्मृत हो उठते हैं और मौन आंखों से कह जाते हैं – गरीब हूँ साहब मेरी भी कोई सुनेगा।

(अहरौरा से हरि किशन अग्रहरि की रिपोर्ट)

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