धर्म संस्कृति

राग और द्वेष से दूर कर देना ही भागवत का श्रेष्ठ कर्म है: नारायणानंद तीर्थ

 ब्यूरो रिपोर्ट, मिर्जापुर(लालगंज)।
          राग और द्वेष से दूर कर देना ही भागवत का श्रेष्ठ कर्म है। धर्म को देखने की शक्ति सभी में नहीं होती और जिसके अंदर अलौकिक दृष्टि होती है केवल वही धर्म और सृष्टि को देख सकता है भक्त को भगवान से और भगवान् को भक्तो से अलग नहीं किया जा सकता। भगवान में सत्य, दया, क्षमा, त्याग, संतोष, सरलता आदि अनेकानेक गुण है और उन्ही के गुणों के कारण संसार का कल्याण हो रहा है। ये सब बातें श्री काशी धर्म पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानन्द तीर्थ जी महाराज ने जिले के लालगंज के गंगहरा कलाँ में चल रही सप्तदिवसीय श्रीमद्भागवत ज्ञान यज्ञ और पारायण में  सत्संग के दौरान कही।
        महाराज श्री ने कहा कलियुग में यदि भगवान का ध्यान न किया जाये तो लोग आपस में ही झगडे और कलह करने लगेंगे। धर्म की रक्षा के लिये ही क्षत्रिय अस्त्र धारण करते है और सज्जन पुरुषों का रक्षण करते है निर्बल को सताना बहुत बड़ा अधर्म है “निर्बल को न सताइये” सज्जन पुरुष और महात्माओं का अपना स्वयं का कोई दुःख या सुख नहीं होता वे तो दुसरों के दुःख में ही दुखी सुखी होते है ।महाराज श्री ने कहा कुछ लोग होते है जो कहते है काल और कर्मो के कारण दुःख होता है कुछ तो ऐसे भी है जो ईश्वर पर ही दोष लगा देते है मगर वे लोग ये नहीं जानते की झूठे लोग दूसरों पर आरोप जल्दी लगाते है संसार में अपने को कर्ता समझने वाले अज्ञानी लोग दूसरों पर कर्तृत्व का आरोप लगा देते हैं “सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित नेति निरूपहि वेदा”।। जब हमें दुःख होता है तो उसका उपादान कारण हमारे अंदर ही मौजूद रहता है परमात्मा की गति किसी को समझ में नहीं आती जहाँ धर्म होता है वहाँ तपस्या होती है और अभिमान से तपस्या भंग हो जाती है । स्वामी जी ने कहा अपराधी से भी अपराधी व्यक्ति अगर शरण में आ जाये तो उसे क्षमा कर देना चाहिये । दुष्टो के ह्रदय में करुणा नहीं होती महात्माओं का कोई तिरस्कार करे या अपमान उन्हें कष्ट नहीं होता महाराज जी ने बताया वह किसी भी जाती या धर्म का व्यक्ति ही क्यों न हो अगर उसे दूसरों के द्वन्दों का अपने ऊपर कोई असर न पड़े वह महात्मा है ईश्वर और गुरु के ऊपर संसय करने वाले को तुरन्त दंड मिलता है कर्मो का फल इस शरीर से सभी को भोगना पड़ता है रामचरित मानस में तुलसीदास जी महाराज ने कहा “काहू न कोउ सुख दुःख कर दाता” मनुष्य का बहुत समय संसार के सम्बन्धो में और व्यवहार में ही व्यतीत हो जाता है हर शरीर के पीछे मृत्यु लगी है आत्मा अजर अमर है मैं (अहम) नाम आत्मा का है परन्तु देह में आरोप होने के कारण नहीं भासती देह मरने वाला है और जो इस आत्मा को देह से अलग कर लेता है वो अमर है महाराज श्री ने कहा जो काम, क्रोध,लोभ,मोह और अहंकार को भगवान में अर्पण कर दे वो आत्मनिष्ठ है मन को भगवान में लगाने से ही भक्ति का प्रादुर्भाव होता है । इससे पूर्व पादुका पूजन का कार्य सविधि सम्पन्न हुआ जिसमें समस्त ग्रामवासियों और क्षेत्रवासियों सहित नारायण सेवा समिति के  सभी सदस्यों और अन्य गणमान्य लोगों ने पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त किया।
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