0 वही साहित्य सार्थक जो युगबोध कराए: पूर्व प्रधानाचार्य वृजदेव पाण्डेय
0 हिंदी गौरव डॉ भवदेव पांडेय की 99 वीं जयंती पर संगोष्ठी
मिर्जापुर।
समष्टिवादी साहित्य कालजयी होता है जबकि व्यष्टिवादी साहित्य की आयु कम होती है। वही साहित्य उपयोगी होता है जो युगबोध कराए । समाज में पीड़ा, यातना, विसंगति, त्रासदी है और साहित्यकार सौंदर्य, शासक के बड़प्पन को परोस रहा है तब वह समाज के साथ न्याय नहीं कर रहा है। यह निष्कर्ष हिंदी गौरव डॉ भवदेव पांडेय की 99वीं जयंती पर ‘साहित्य की परंपरा और आज का लेखन’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी सामने आया।
नगर के तिवराने टोला मुहल्ले में स्थित शोध संस्थान में गोष्ठी में सोमवार की शाम साहित्यिक संगोष्ठी में भक्तिकाल से लेकर 21वीं सदी के डिजिटल लेखन तक वक्ताओं ने अध्यायों पर गहरी दृष्टि डाली। गोष्ठी के मुख्य अतिथि जिला विधिक सेवा प्राधिकरण के पूर्णकालिक सचिव न्यायाधीश अमित कुमार यादव थे। उन्होंने भी विषय को तराजू पर तौलने के बाद यह फैसला दिया कि साहित्य जनसामान्य और व्यापक जनसमूह के हितों से दूर दिखाई पड़ रहा है।
उन्होंने आज के साहित्यकारों से अपेक्षा की कि वे निचले स्तर पर जीते और मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित लोगों की पैरवी अवश्य करें। गोष्ठी के मुख्य वक्ता वरिष्ठ साहित्यकार एवं आदर्श इंटरमीडिएट कालेज के अवकाशप्राप्त प्रधानाचार्य वृजदेव पांडेय ने मध्ययुग से लेकर उत्तर आधुनिक युग का सिलसिलेवार वर्णन किया। श्री पांडेय ने रीतिकाल और भक्तिकाल का मूल्यांकन करते हुए भक्तिकाल को अधिक उपयोगी बताया।
उन्होंने कहा कि मथुराधीश श्रीकृष्ण के लिए सूरदास ‘छछिया भर छाछ पर नाच नचायो’ इसलिए लिखते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी जान सके कि श्रीकृष्ण आमजनता के साथ तालमेल बनाकर रहते हैं। श्री पांडेय ने कहा कि वह साहित्य सार्थक नहीं जो प्रेम, दीवानगी, रूपवर्णन के आगे भूख की पीड़ा नहीं व्यक्त कर रहा हो। अपने वक्तव्य में श्री पांडेय ने आचार्य रामचंद्र शक्ल और पं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को साहित्य का शीर्ष पुरुष बताया और कहा कि इनकी साहित्यिक तपस्या और साधना के जाने बिना कोई बड़ा साहित्यकार नहीं बन सकता। श्री पांडेय ने कहा कि शब्दों की भी यात्रा होती है। अलग अलग समय में शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। जैसे लोमहर्षक का अर्थ रोम रोम हर्षित है लेकिन अब ‘लोमहर्षक दुर्घटना’ का प्रयोग हो रहा है।
इस मौके पर साहित्य-विज्ञ तथा यूनाइटेड इंश्योरेंस कंपनी के प्रशासनिक अधिकारी केशव नारायण पाठक ने गोस्वामी तुलसीदास की गहरी दृष्टिकी थाह ली जबकि मुंशी प्रेमचंद के मन को गहराई से झांकने के बाद कहा कि उसमें शोषित, पीड़ित, उपेक्षित जन बिलखते दिखाई देते है और तथाकथित श्रेष्ठजनों को चरित्र दोहरा दिखता है। इस दोहरे चरित्र को भी कहानीकार ने पर्दे से बाहर किया है। श्री पाठक ने मुख्य वक्ता के ‘सम्यक अधीत: सम्यक प्रयुक्त:’ सूत्र की उपयोगिता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि कौन सा शब्द कहाँ प्रयुक्त करना है, यह जानना अति आवश्यक है। श्री पाठक ने आधुनिक साहित्य लेखन में भी अच्छी रचनाओं का उल्लेख किया। श्री पाठक ने ‘प्रेक्षा रानी, सुनो कहानी’ कविता को संवेदनशील रचना माना और कहा कि इस तरह का लेखन पाठकों के मन को छूती है।
विशिष्ठ अथिति पद्मश्री अजिता श्रीवास्तव ने ‘हमरे देशवा कS संस्कृति मिटाई गइल, गउवां अब हेराइ गइल नाS’ लोकगीत के माध्यम से सांस्कृतिक परिवर्तन पर प्रकाश डाला।
अन्य वक्ताओं ने भी विषय पर चर्चा की। गोष्ठी की अध्यक्षता भगवती प्रसाद चौधरी तथा धन्यवाद ज्ञापन पत्रकार सन्तोष कुमार श्रीवास्तव, सञ्चालन कवि एवं समीक्षक अरविंद अवस्थी ने किया। प्रारंभ में स्वागत सलिल पांडेय ने किया।
इस अवसर पर सेम्फोर्ड स्कूल के डायरेक्टर ईं0 विवेक बरनवाल, रवींद्र पांडेय, कमलेश दुबे, अंकित दुबे, डॉ आशा राय, भूपेंद्र सिंह डंग, ध्रुवजी पांडेय, पत्रकार राकेश द्विवेदी एवं शिव शुक्ल, राजकुमार उपाध्याय, रवि पांडेय, प्रदीप पांडेय, रिंकू दुबे, अभिनव दुबे, ठाकुर प्रसाद यादव, कृष्णा अग्रहरि आदि उपस्थित थे।