स्वास्थ्य

3 अबोध बच्चों की पालनकर्ता विधवा मां को ले गया डेंगू: अशक्त दादा-दादी के कंधे पर पलेंगे बच्चे

इलाज कर रहे, पैसा भी मनमाना ले रहे, केस बिगड़ने पर मैदान छोड़कर भाग जा रहे डॉक्टर

पैथालॉजी मशीनों की जांच हो कि ये सही भी हैं या कबाड़ के लायक हैं?

मिर्जापुर।

एक और जान लेने के बाद नगर क्षेत्र में डेंगू दहाई अंक तक पहुंच गया। एक माह में 10 लोगों को मौत के हाथों सौंपने के बाद डेंगू का डंका दसो-दिशाओं में बज रहा है। कई घरों में पूरे सदस्यों को इस तरह चपेट में ले चुका है कि परिवार में रसोई सम्हालने वाला कोई नहीं रह गया है। कुछ गैरज़िले तो कुछ इसी जिले में भर्ती है। इन परिवारों छोटे बच्चों को दूध गर्म करने वाले पुरूष अथवा महिला सदस्याएं खुद टेम्प्रेचर हाई होने से बिस्तर पर पड़े हैं। बरौंधा मुहल्ले में सिंचाई विभाग के रिटायर्ड कैशियर रामलखन पांडेय के घर में खुद वे एवं परिवार के 7 सदस्य जिसमें महिलाएं और बच्चे भी हैं, डेंगू से पीड़ित हैं। इसी तरह यहाँ अर्जुन पांडेय के घर के 3 सदस्य पीड़ित हैं। बहू को आखिरकार 11 अक्टूबर को वाराणसी ले जाना पड़ा । जबकि यहीं दीनानाथ तिवारी और सत्येंद्र मिश्र का घर भी मिनी अस्पताल बना हुआ है।

 

डेंगू से 3 अबोध बच्चों पर दया की उम्मीद करना ही नासमझी होगी

नगर के लल्लाघाट मुहल्ले में डेंगू घुसा तो 3 अबोध लल्लाओं पर दया करना तो स्वप्न भी नहीं सोचा जा सकता लिहाजा इन बच्चों की विधवा मां को लेकर चल बसा डेंगू। जबकि अभी मात्र 3 माह पूर्व फांसी लगाकर मरे अपने पति के गम को वह भूला न पाई थी। पति नर्बदा मौर्य (35) फ्लैक्स बोर्ड लगाने का काम करता था। बच्चों पर से पिता की छाया के बाद मां किसी प्रकार उनका देखभाल करती थी, लेकिन डेंगू से यह भी न देखा गया। बच्चों की ज़िम्मेदारी बूढ़े दादा-दादी के जर्जर कन्धों पर आ गई है।

किसी स्वघोषित समाजसेवी की आंखों में आंसू न आए

विधवा मां की दो दिन पूर्व मृत्यु के बावजूद किसी समाजसेवी की आंखों में रंचमात्र आंसू न दिख सका जो समाजसेवी होने का दावा करते समय मंचों पर नदियों में बाढ़ की तरह दिखाई पड़ता है। समाजसेवी का तमगा यदि कहीं मिले तो इतने समाजसेवी मधुमक्खी की तरह भिनभिनाने लगेंगे कि तमगा देने वाले का मन ही भिनभिना जाएगा।

ये डॉक्टर नहीं कहे जा सकते, ऐसा लोग मानने लगे हैं

समय से डॉक्टर के यहां पहुंचने के बाद भी यदि किसी मरीज की जान लूट जा रही है तो कोई इन्हें डॉक्टर की जगह कुछ भी कहे तो इसलिए आश्चर्य नहीं क्योंकि ‘आए थे जिंदगी के लिए और जिंदगी लूटा के लौटना पड़ रहा है।’

 

डॉक्टरी सर्टिफिकेट पर प्रश्न-चिह्न?

इस बीच कतिपय डॉक्टरों के सर्टिफिकेट पर प्रश्न चिह्न लगने लगे हैं। किसी का सर्टिफिकेट रसिया (रूस) का, किसी का यूक्रेन का तो किसी का ऐसे देशों का नाम सामने आ रहा है, जिस देश का नाम सिर्फ भूगोल-विद ही बता सकते हैं जबकि कोई डोनेशन वाली संस्था से सर्टिफिकेट लिए है। जिनकी नज़र मेडिकल की पढ़ाई नहीं सिर्फ कमाई पर नज़र रहती है। लोग मांग करने लगे हैं कि ‘बोर्ड पर लिखें कि डॉक्टर साहब कहाँ से Pass 0ut (पास-आऊट) हैं?’ यह उतने ही बड़े साइज़ में लिखा हो जितने बड़े साइज़ में मेडिकल फर्म और डॉक्टर का नाम लिखा हुआ है।

आखिर लोग ऐसा क्यों कह रहे?

नगर के देवर्षिनगर कालोनी, शुक्लहा में रहने वाले पुलिस विभाग के SI विनोद चंद शुक्ल के 31 वर्षीय बैंक ऑफिसर पुत्र के निधन के बाद लोग अचंभित है कि 1 लाख 60 हजार प्लेटलेट्स में जिस डॉक्टर ने इलाज शुरू किया, उसने भरोसा दिया था कि 48 घण्टे में बीमारी खत्म हो जाएगी लेकिन इतने समय के बाद इलाजकर्ता डॉक्टर के ही हॉस्पिटल में ब्लड-टेस्ट में प्लेटलेट्स 90 हजार हो गया। दो दिन और इलाज के बाद उसी डॉक्टर ने कहा कि *’यह मेरा केस नहीं है।* इतना कहने के बाद मरीज को जेल के पास एक दूसरे डॉक्टर के पास ले जाने की सलाह उसी डॉक्टर ने दी। दूसरे डॉक्टर ने एक इंजेक्शन लगाया। इंजेक्शन लगते जब मरीज की हालत और बिगड़ गयी तब वाराणसी ले जाने की सलाह दूसरे वाले डॉक्टर ने दी। बिना विलंब किए वाराणसी के ग्लैक्सी हॉस्पिटल की ओर ले जाते रोहनिया में मरीज सच में अनन्त ग्लैक्सी में चला गया। केस बिगड़ जाने के बाद डॉक्टर सिर्फ *’सॉरी’* बोलकर अगले मरीज की *’जान-मारी’* में लग जाते हैं। बैंक ऑफिसर मनोज प्रभाकर उर्फ रिशु शुक्ला को समय रहते रेफर कर दिया गया होता तो ऐसी नौबत न आती, ऐसा लोगों का मानना है।

 

मशीनों की जांच हो

कतिपय केंद्रों और डाक्टरों के यहां पैथॉलाजी जांच की मशीनें *’हाथी के दांत’* की तरह है। सेकेंड हैंड नहीं थर्ड और फोर्थ हैंड मशीनें लगाकर जनता को यह दिखाया जाता है कि हॉस्पिटल और डॉक्टर तथा पैथॉलाजी केंद्र नम्बर एक का है। जिला प्रशासन को चाहिए कि टेस्ट मशीनों की वह टेस्ट कराए कि मशीनें कबाड़ के लायक तो नहीं है?

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