. मन ही राखो गोय
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सोच सोच कर क्या तू प्राणी
विस्मित होकर बोल रहा है
मन की सकल भावनाओं को
मन के भीतर तौल रहा है
भावों को शब्दों में भरकर
फिर तौल तौल के बोल रहा
पीड़ा मन की है दबी दबी
फ़िर रुकरूक कर तू बोल रहा |
सच कह दे तो ये धरा हिले
अंतर्मन का ना बोल रहा
इससे केवल वेदना मिले
अधरों को सी कर बोल रहा
मन में ज्वाला जो धधक रही
लावा बहने से रोक रहा
जो है ज्ञानी वो समझ रहा
बस मीठा मीठा बोल रहा |
कहाँ कोई सुनता है सिसकी
आंसू शब्दों में घोल रहा
यह भी ज्ञात रहे अंतस्
मन अनल ज्वाल में झोंक रहा
कितने पानी में कौन यहाँ
बात पते की समझ रहा
हर कोई लगता मौन यहाँ
बातों से ही ये परख रहा ।
मौन की भाषा बड़ी प्रखर
समय देख जो मौन रहा
बातों बातों में क्या मालूम
सरल यहाँ पे कौन रहा
गूढ़ प्रश्न आ जाने पर
जिसको देखो वो मौन रहा
ना ही ये बहकावे में आए
मन का बड़ा प्रबल रहा |
आम इमली का भेद कहाँ
किसे पता है भला यहाँ
अपने को पीछे खींच रहा
कैसा ये निर्दयी जहाँ
बेवजह क्यों उलझे ये आलिम
हाकिम की भाषा बोल रहा
मन ही राखो गोय बताकर
समय की मिश्री घोल रहा ||
ज्ञानेंद्र नाथ पांडे’सरल’
जिला आबकारी अधिकारी
मिर्जापुर