आध्यात्म

अद्भुत, रहस्यमयी  और तिलिस्मी है माँ भण्डारी की दंतकथा

अद्भुत, रहस्यमयी  और तिलिस्मी है माँ भण्डारी की दंतकथा

 अहरौरा से हरि किशन अग्रहरि

विन्ध्य पर्वत श्रेणियों में स्थित अहरौरा एक प्राचीन नगरी है। यह नगर अनेकों दंतकथाओं और परम्पराओं की धरोहरें संजोये हुए है। यह नगर चक्रवर्त्ती सम्राट अशोक के स्तम्भ और भगवान गौतम बुद्ध के चौमासा व्यतीत करने का साक्षी रहा है। सिक्खों के धर्म गुरु तेग बहादुर का आगमन यहां हो चुका है। अहरौरा एक ओर जहां जंगलों की सीमा स्थित पर था तो दूसरी ओर काशी विश्वनाथ को पहुंचने का सड़क मार्ग प्रशस्त करता था। देवकीनंदन कृत चंद्रकांता उपन्यास नौगढ़, विजय गढ़ और चुनार का जिक्र करता है मगर इस उपन्यास के तिलस्म की अक्षरत:प्रस्तुतीकरण अहरौरा और इसके बीस पच्चीस किलोमीटर की परिधि में स्थित जंगल, पहाड़, झरने और गुफाएं करते हैं।


मां विन्ध्यवासिनी का विचरण क्षेत्र विन्ध्य पर्वत की श्रेणियां और यहां स्थित वन, झरने और कंदराएं रहे हैं जहां आज भी पहुंचने पर अजीबोगरीब ठंडक, शांति और शक्ति का आभास होता है। यह विन्ध्य पर्वत श्रेणी अनेक पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और दंतकथाओं का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें मां भण्डारी की भी एक अद्भुत दंतकथा अहरौरा के हर नर नारी को कंठस्थ पीढ़ी दर पीढ़ी होती आ रही है। विजयगढ़ के राजा धर्म देव थे। इनकी रानी श्यामलता थी। चहुँओर खुशहाली थी क्योंकि इष्टदेवी माँ भवानी का इस राज्य पर वरहस्त था। राजा शिकार के शौकीन थे। पर राजा निसंतान थे। लेकिन मां भवानी पर अटल विश्वास उन्हें कभी भी निराशा और उदासी से घिरने नहीं दिया। एक बार वह शिकार खेलने जंगल गये तो बहुत रात हो गई। झरने के किनारे रात्रि विश्राम करने का फैसला किया। उसी झरने के किराने भटकते हुए प्यासी एक गाय आयी। राजा ने सोचा कि जंगली जानवर है क्योंकि काफी अंधेरा था। कमान पर बाण चढ़ाई और चला दी। निशाना सटीक था सो तीर गाय को लग गयी। वह तड़प उठी। राजा धर्मदेव शिकार के पास आये परन्तु गाय को देखकर चौंक गए। उस गाय ने राजा धर्मदेव को देखते ही श्राप दे दिया कि हे राजन, जा मैं तुझे श्राप देती हूँ कि जैसे मैं पानी के लिए तरसती ही रही वैसे तेरा राज्य भी तरसेगा। राज्य में भयंकर सूखा पड़ने लगा। त्राहि त्राहि राज्य में मच गया। प्यास से लोग मरने लगे तो राजा ने अनेक ब्राह्मणों और धर्माचार्यों की बैठक बुलाई तो उन्होंने सुझाव दिया कि आप सात पोखरे खुदवाईये। विजय गढ़ किले के पास ही सात तालाब खुदवायें गये जो आज भी है। लेकिन किसी पोखरे में पानी गाय के श्राप के कारण नहीं पड़ा। धर्माचार्यों ने एक बार फिर गाय के श्राप से मुक्ति का उपाय के मंत्र साधना की। फिर उपाय बताया कि अगर पतिव्रता नारी सात कच्चे घड़ों से बारी बारी पोखरे में पानी डालें तो पानी पड़ जायेगा और गाय के श्राप का संक्षेप हो जायेगा। कर्म, मन और वचन से पतिव्रता नारी पूरे राज्य में नहीं मिली। हजारों महिलाओं ने पानी डाला परंतु पानी नहीं पड़ा तो रानी से विनती की गई कि आप प्रयास करें परंतु रानी भी पराये मर्द के सौष्ठव पर एक बार मोहित हुई थी सो इनका प्रयास भी निष्फल हो गया। अब राजा धर्मदेव को आत्मग्लानि होने लगी। वह महल आकर आत्महत्या करने के लिए तलवार निकाला तो इष्ट देवी मां भवानी ने कहा कि हे राजन, ऐसा करना पाप है। जाओ अंझिया विधवा नामक भीलनी अपने आठ वर्षीय पुत्र मुरली के साथ जंगल में रहती है। वह पतिव्रता है अगर उससे पानी डलवाओगे तो पानी पड़ेगा और सूखे से मुक्ति मिलेगी। हुआ भी ऐसा ही था। अंझिया ने कच्चे घड़े पानी बारी बारी डालती और पोखरा भरता चला गया। अंझिया की जयकार होने लगी। राजा धर्मदेव प्रसन्नचित्त हो गया परंतु रानी श्यामलता ईष्या से भर गयी। रानी श्यामलता को नींद नहीं आई। उसने एक वैद्य को लालच और जान से मारने की धमकी धमकी के बल पर अपने षडयंत्र में शामिल किया। फिर राजा धर्मदेव को पास बुलाया और बोली कि मेरी तबीयत खराब है, कुछ अच्छा नहीं लग रहा है, मुझे अब संतान चाहिए। राजा ने वैद्य को बुलाया तो कारण और उपाय पूछा तो वैद्य ने कहा कि राजन, इनका स्वास्थ्य किसी पतिव्रता नारि के पुत्र के कलेजे को लाकर सिर पर रखने से ठीक हो जायेगा। पुत्र प्राप्ति के लिए तो राजा धर्मदेव भी व्याकुल रहते थे और रानी श्यामलता से भी मुहब्बत बहुत ज्यादा करते थे। सो विचार में डूब गए। धर्म और अधर्म के बीच तमाम विचार चित्र बनते और बिगड़ते। इसी बीच रानी ने कहा कि अंझिया का पुत्र मुरली है ना, उसी का कलेजा ले आईये। प्रेमांध व्यक्ति को सांप भी रस्सी नजर आती है सो राजा तलवार लेकर सैनिकों संग अंझिया के कुटिया जा पहुंचा। अंझिया पानी लाने गयी थी सो मुरली की हत्या करके उसके कलेजे को लेकर राजा महल की ओर निकल पड़ा। इधर अंझिया ने पुत्र के शव को देखकर खून के आंसू रोने लगी। मां भवानी से यह सब सहा नहीं गया। वो महल छोड़कर अंझिया के पास जा पहुंची। मां भवानी ने कहा कि अंझिया तेरा दर्द मुझसे सहा नहीं जा रहा है। मैं भी मां हूं तेरा दर्द समझ सकती हूं सो आज से तेरे पास तेरी बेटी के रूप में मैं रहूंगी। मां भवानी कहते हुए अंतर्ध्यान हो गयी और अंझिया के पास एक छोटी सी बच्ची रहने लगी। अहरौरा बाजार से बारह किलोमीटर दक्षिण वाराणसी शक्तिनगर मार्ग पर अंझिया नाला आज भी है जहां बच्ची के साथ आकर अंझिया ने अपनी अंतिम सांस ली थी। जंगल में मां के शव पास बच्ची रोये जा रही थी। जंगल में उसकी आवाज़ दूर दूर तक फैल रही थी। वर्तमान अहरौरा बाजार के तीन तीन किलोमीटर दक्षिण पूर्व में सीविर ग्राम है। जहां पर अहरौरा का प्राचीन बाजार लगता था। यहाँ आज भी थोड़ी सी खुदाई के दौरान अक्सर प्राचीन सिक्के निकल आते हैं। इस गांव की एक ओर एक पहाड़ आज भी है जिसे राजा करपाल की पहाड़ कहते हैं। मान्यता तो यहां तक है कि इस पहाड़ के अंदर एक किला है जिसके राजा करपाल थे। राजा करपाल शिकार खेलने जंगल में पहुंचे तो बच्ची के रोने की आवाज उनके कानों में पहुंची। घोड़े पर सवार राजा ने लगाम लगाई। घोड़े से नीचे उतरे और आवाज की दिशा में बढ़ गये। बच्ची रो रही थी। अंझिया का शव पास पड़ा था। राजा की नजर बच्ची से मिलते ही असीम शक्ति का आभास हुआ। बच्ची के साथ सामने घूटनों बल बैठ गये। हाथ जोड़ लिये लेकिन बच्ची अभी रोये जा रही थी। राजा ने शव का दाह संस्कार किया सो बच्ची को उन्होंने बहन के रूप में स्वीकार किया और उस बच्ची को लेकर महल की ओर लौट आये। लोगों का कहना है कि राजा करपाल की पहाड़ी पर ही कोई दरवाजा आज भी है जो उनके किले में ले जाती है जहां अथाह दौलत है। लेकिन आज तक कई तांत्रिक इधर आये, साधना की मगर सफल नहीं हुए। राजा करपाल के पहाड़ी के उपर बिना छत की घेराबंदी की गयी है। जहां राजा करपाल की विधिवत पूजा पाठ की जाती है। और जब भी छत बनाने की कोशिश की जाती है तो या तो छत स्वत:टूट जाता है या किसी के द्वारा तोड़ने का सबूत मिलता है। यहीं एक हनुमानजी जी की नौ फिट की विशाल हनुमानजी की जाग्रत मूर्ति है जिनको अथाह दौलत का पहरेदार भी कहा जाता है।

चन्द्रकांता उपन्यास में वर्णित सुमेधा जहां की दौलत के लिए चुनार के राजा और विजय गढ के राजा के मध्य युद्ध हुआ था और जांबाज बना कलाकार मुकेश खन्ना रक्षा करता है। इसी जगह का आज नाम सिवीर ग्राम है। धीरे धीरे वह बालिका बड़ी होने लगी। युवा होने पर मां भवानी ने अंझिया पर हुए अत्याचार का विजय गढ़ धर्म देव से बदला लेने की सोची क्योंकि जब राजा को समाचार मिला कि अंझिया के पास एक छोटी बच्ची है तो विधवा अंझिया पतिव्रता कैसे हो गयी चूंकि पानी पोखरे में पड़ा था सो राजा धर्म देव ने देश निकाला दे दिया था। विजय गढ़ पर मां भवानी ने चढ़ाई की और युद्ध हुआ जिसमें धर्म देव की हार हुई। धर्म देव का सिर मां भवानी ने काट लिया था। मां भवानी के अनुपम सौंदर्य की, बहादुरी की और दान देने की चर्चा दूर दूर तक होने लगी। लेकिन जितने राजाओं ने इनका दर्शन किया सबके सब इनके अद्भुत चमक और तेज के आगे भाव बदल दिये और नतमस्तक होते गए क्योंकि उन राजाओं को शक्ति का अभास होने लगा था। अनेक राज्यों में यह सोच बनने लगी थी कि राजा कर पाल की बहन कोई बहुत बड़ी शक्ति है। जब भुईली पहाड़ के राजा असुर भंडवा को हुई तो उसने राजा कर्णपाल को संदेश दिया कि मैं आपकी बहन से विवाह करना चाहता हूं लेकिन असुर से विवाह के लिए राजा कर्णपाल ने मना कर दिया। तो भंडवा असुर ने राजा कर्णपाल पर चढ़ाई कर दी। अहरौरा के दो किलोमीटर उत्तर में दोनों सेनाओं के बीच युद्ध होने लगा। राजा कर्णपाल की हार होने लगी तो मां भवानी को सूचना मिली तो वह किले से निकली और भयंकर युद्ध भंडवा असुर से होने लगा। बिजली कड़कने लगी। बादल गरजने लगा। चारों ओर तलवार से तलवार टकराने की आवाज गूंजने लगीं। भंडवा असुर शरीर बढ़ने लगा तो माता भी शरीर बढ़ाने लगी। और जितना रक्त भंडवा का जमींन पर गिरता उतना भंडवा असुर बनता गया। फिर जिक्र होता है कि चुनार की दुर्गा पास आकर बोली कि इसका रक्त का भक्षण करो तब इसकी मृत्यु होगी। फिर ऐसा ही हुआ। भंडवा असुर मारा गया। यहीं पर इनका नाम मां भण्डारी पड़ा। फिर भंडवासुर की सेना भागने लगी तो भी मां भण्डारी का गुस्सा शांत नहीं हुआ। वह गाजर, मूली की तरह सेना का भक्षण करने लगी। इसी पहाड़ के नीचे मणीकेश्वर नामक शिव लिंग था जिसमें से महादेव प्रगट हुए। देवी भण्डारी को शांत कराया और अपनाया। इसीलिए मणीकेश्वर के साथ रहने के कारण मां भण्डारी का यह क्षेत्र ससुराल कहलाता है। पहाड़ के नीचे एक विशाल पत्थर पर भंडवासुर का चित्र अंकित है जिस पर लोग पत्थर फेंकते हैं। इस पहाड़ को मां भण्डारी देवी का पहाड़ कहा जाता है। इसके उपर प्राचीन एक पानी का स्रोत है। मां के पद चिन्ह है जो एक गज के बराबर है। इसी पहाड़ी के नीचे एक किला है जो वर्तमान मां भण्डारी देवी के मंदिर के पीछे की गुफा से जाया जाता रहा है जो अब बंद हो चुका है। मां आज भी अपने राज्य में सूखा नहीं पड़ने देती है। अन्न की सवैया चलाती थी। शादी विवाह के जरूरत मंदो को धन भी देती थी। लेकिन अब यह परम्परा भक्ति और साधना में बदल गयी है। आज भी मां अपने भक्तों को इच्छानुसार वरदान देती है। पुत्र प्राप्ति के लिए, मन वांछित वर के लिए अक्सर महिलाओं और युवतियों का तांता लगा रहता है जो पूर्ण भी होती है सच्चे मन से आने वाले का भण्डार सदैव के लिए मां भरती है।
यह कोई तिलस्म नहीं बल्कि आस्था और विश्वास का जीता जागता प्रमाण है जिसकी गवाही हर सावन माह में लाखों की संख्या में आने वाले भक्त देते हैं।


मां भण्डारी की कथा के संबंध में ग्राम प्रधान महुली रणजीत यादव ने बताया कि अंझिया के पुत्र की रक्षा करने में विजयगढ़ किले के पास मिरान शाह शहीद हुए थे। इनकी हर साल उर्स लगता है और भौरे के रूप में मुरली भी साथ ही रहता है। मणीकेश्वर भगवान शिव भी भण्डारी देवी पहाड़ के नीचे रहते थे लेकिन मुगलों ने इसे दफनाकर दिया है जो वहीं बनायी गयी पांचों भईया के मजार के आसपास ही है।

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