पितृ विसर्जन परम्पराओं से आज भी जीवित
ब्यूरो, मिर्जापुर
मानव जीवन ऋणों के भुगतान के इर्दगिर्द घूमती है। व्यक्ति के कर्म ऋण मुक्ति के प्रयासों के आसपास ही भटकता है। इन्हीं प्रयासों में व्यक्ति सुख और दुख की अनुभूति करते हुए जीवन यात्रा में आगे बढ़ता जाता है। व्यक्ति के उपर पांच प्रकार के ऋण सनातनी व्यवस्था में माना गया है। मातृ, पितृ, देव, अतिथि और गुरु ऋण व्यक्ति के उपर होते हैं। सभी ऋणों के भुगतान हेतु कर्म विधान और कर्म काण्ड का निर्माण किया गया है जिसको पारम्परिक रूप से व्यक्ति निर्वहन करता है। इन सभी ऋणों में काल खण्ड का विशेष महत्व है। पितृ विसर्जन भी इन्हीं में एक है जो नवरात्र के पूर्व होता है और अश्विन मास में आता है। इस मास में मान्यता है कि पूर्वज पितृ लोक से धरती पर अपने वंशजों को देखने और आर्शीवाद देने के लिए आते हैं और अपने लिए सम्मान बोध चाहते हैं। इन पितृरों से संवाद करना दुरूह कार्य होता है। सो परम्परागत जौ का आटा और तील मिलाकर पिण्ड बनाया जाता है जिसे बहते जल में प्रवाहित किया जाता है जिसे जलीय भेष में पितृ ग्रहण करके प्रसन्न हो, तमाम तरह के पारम्परिक व्यंजन भी स्थलीय जीव गाय और कुत्ता को दिया जाता है। आकाशीय चर जीव कौवा को भी भोजन खिलाकर पितृरों को प्रसन्न करने की परम्परा है। इन कर्मों के करने के पूर्व व्यक्ति मंत्र, स्नान और मुंडन करके अपने आप का विशुद्धीकरण सांस्कारिक ढंग से करता है।
इस तरह की विधि विधान बहते जल के किनारे होती है जो अहरौरा के आसपास जल स्रोतों के किनारे बहुयात देखने को मिली। पितृरों की विदाई मंत्र और तमाम सामग्रियां दान के माध्यम से पितरों को समर्पित करते देखा भी देखा गया।
वास्तव में कुछ ऐसी परम्पराएँ भी होती हैं जिसका वैज्ञानिक आधार भले ही सटीक न हो परन्तु आत्मीक शांति के लिए बड़े कारगर होते हैं जिसका जबाब विज्ञान अभी तक नहीं दे पाया है।