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बच्चें हैं क्या मासूम, ना बने बेखबर
ब्यूरो, मिर्जापुर (अहरौरा)
भीड़ भाड़ वाले क्षेत्रों में अहरौरा का सत्यानगंज क्षेत्र है जहां पर तीन बैंक हैं और तीन ही एटीएम बैंक हैं। कोआपरेटिव बैंक भी है सो भीड़ होना लाजमी है। भीड़ में सबके सब अपनी ही मंजिल तलाशते हैं। इलाहाबाद बैंक परिसर में चार बच्चे उम्र सात आठ वर्ष के बच्चे टहलते मिले। पुलिस चेकिंग के दौरान इनसे पूछताछ होने लगी तो नाहिं ये अपने अभिभावकों के संग यहाँ आये थे और नाहिं ये अपना मकसद स्पष्ट कर पाये कि इस क्षेत्र में ये सब बच्चे कंजड़ जाति के सब क्या कर रहे हैं? पुलिस दुविधा में फंसी आखिर इनका क्या किया जाए? क्या ये बड़ी वारदातों के मुखबिर हैं? इनके अभिभावक इनपर निगरानी क्यूँ नहीं करते हैं? इन सभी यक्ष प्रश्नों का जवाब अभी नहीं हैं। मगर पुलिस की तत्परता सराहनीय है क्योंकि छोटे छोटे तथ्यों पर निगरानी करने से भरोसा पर पुलिस खरी उतरी है।अपराधी जन्म जात होते हैं या बनाये जाते हैं? इस समाज शास्त्रीय प्रश्न पर बड़ी बहस फिर से होनी शुरू हो गई है। भेष भूषा और बोल चाल की तीव्रता सामान्य बच्चों से अलग क्यूँ थी? क्या पुलिस ने बड़ी घटना को अंजाम तक पहुंचने से पहले रोक लिया है या बच्चों को सभ्य समाज में जोड़ने की मुहिम में पुलिस सफल हुई है, यह तो पुलिस की मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों के आधार पर ही स्पष्ट होगा।
ऐसे आर्थिक क्षेत्रों में इन बच्चों का बेवजह घूमना संदिग्ध है क्योंकि आजकल आधुनिकता और इंटरनेट के प्रभाव से बच्चें समय से पहले विकसित हो जा रहे हैं जिससे समाज को खतरा बना रहता है।